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Salasar Balaji Temple, History in Hindi, Timings, How to Reach, Best Time to Visit, Things to Do In And Around

March 24, 2020 by Vijay Choudhary Leave a Comment

Salasar Balaji Temple, History in Hindi, Timings, How to Reach, Best Time to Visit, Things to Do In And Around, Official Contact Detail.

Salasar Balaji

This place of religious importance is located in the town of Salasar in Rajasthan. The temple is dedicated to Lord Hanuman who is also known by the name Balaji. The temple is constructed in white marble stone. The prayer hall of the temple and the Sanctum is marvelously designed in the work of silver and gold. The temple is also called the Salasar Dham which is the Place of Power. It attracts numerous devotees from all parts of the country and is a well known tourist spot as well. The entry gates of the temple have beautiful carvings on marbles which makes them very attractive. You will notice work of floral patterns adorning the shrine of the temple. It is believed that visiting this temple and offering prayers has resulted in many miracles and fulfillment of wishes of the worshippers. Tying of coconut is a very famous ritual of this temple and it is believed to make wishes of the devotees come true. Another ritual performed here is the Savamani where 50 kg of food is offered by the devotee to Lord Balaji.

History

There is an interesting story behind the Salasar Balaji temple. It is said that when a farmer was ploughing his fields, he found the idol of Lord Hanuman. His wife cleaned the idol and worshipped Lord Hanuman as Balaji. There was a nearby village named Asota where Balaji came in the dreams of Thakur of the village and ordered him to send the idol of Hanuman to Salasar. It is believed that Lord Balaji had also appeared in the dreams of a devotee saying him the same thing. After this incident, the idol of Balaji was brought to Salasar which gave rise to this temple that we see today.

मंदिर का परिचय

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है जिनमें पंचदेव प्रमुख हैं। पंच देवों का तेज पुंज श्री हनुमान जी हैं।

प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित सात करोड़ मन्त्रों में श्री हनुमान जी की पूजा का विशेष उल्लेख है। श्री राम भक्तए रूद्र अवतारए सूर्य.शिष्यए वायु.पुत्रए केसरी.नन्दनए महाबलए श्री बालाजी के नाम से प्रसिद्ध तथा माता अन्जनी के गर्भ से प्रकट हनुमान जी में पांच देवताओं का तेज समाहित हैं।

हनुमान जी पूरे भारतवर्ष में पूजे जाते हैं और जन.जन के आराध्य देव हैं। बिना भेदभाव के सभी हनुमान अर्चना के अधिकारी हैं। अतुलनीय बलशाली होने के फलस्वरूप इन्हें बालाजी की संज्ञा दी गई है। देश के प्रत्येक क्षेत्र में हनुमान जी की पूजा की अलग परम्परा है। वीर.भूमि राजस्थान में ष्बाबाष् या बालाजी के नाम से विख्यात हनुमान जी के अनेक प्रसिद्ध मन्दिर हैं जिनमें सालासर के चमत्कारी श्री बालाजी मन्दिर का विशेष महत्व है।

सालासर राजस्थान प्रान्त के चुरू जिले की सुजानगढ़ तहसील में स्थित है। सुजानगढ़ से लगभग 25 किलोमीटर दूर मरूस्थल कटीलों के बीच सालासर का परम.पावन क्षेत्र स्थित है। सालासर के कण.कण में श्री बालाजी विद्यमान हैं। श्री बालाजी मन्दिर सालासरए राजस्थानी शैली में निर्मित एक भव्य एवं विशाल मन्दिर है।

सालासर में स्थापित सिद्धपीठ बालाजी की प्रतिमा आसोटा गांव के एक खेत में प्रकट हुई थी। बालाजी के परम भक्त मोहनदास जी को हल चलाते समय इस प्रतिमा के प्रथम दर्शन हुए थे। तत्पश्चात भक्त श्री मोहनदास द्वाराए श्री बालाजी महाराज की दिव्य प्रेरणा सेए आज से लगभग 253 वर्ष पूर्वए विक्रमी सम्वत् 1811 ;इघ् सन 1754द्ध श्रावन शुक्ल नवमीए शानिवार को श्री बालाजी के श्रीविग्रह की प्रतिष्ठा सालासर के परम पावन क्षेत्र में हुई। भक्त मोहनदास जी एवं उनकी बहन कान्ही बाई ने अनन्य भक्ति भाव से बालाजी की सेवा अर्चना की और बालाजी के साक्षात् दर्शन प्राप्त किए। कहते हैं कि श्री बालाजी एवं मोहनदास जी आपस में वार्तालाप करते थे।

मन्दिर में श्री बालाजी की भव्य प्रतिमा सोने के सिंहासन पर विराजमान है। इसके ऊपरी भाग में श्री राम दरबार है तथा निचले भाग में श्री राम चरणों में दाढ़ी.मूंछ से सुशोभित हनुमान जी श्री बालाजी के रूप में विराजमान हैं। मुख्य प्रतिमा शालिग्राम पत्थर की है जिसे गेरूए रंग और सोने से सजाया गया है। बालाजी का यह रूप अद्भुतए आकर्षक एवं प्रभावशाली हैं। प्रतिमा के चारों तरफ सोने से सजावट की गई हैं और सोने का रत्न जडि़त भव्य मुकुट चढ़ाया गया है। प्रतिमा पर लगभग 5 किलोग्राम सोने से निर्मित स्वर्ण छत्र भी सुशोभित है।

प्रतिष्ठा के समय से ही मन्दिर के अंदर अखण्ड दीप प्रज्वलित हैं। मन्दिर परिसर के अन्दर प्राचीन कुएं का लवण मुक्त जल आरोग्यवर्धक है। श्रद्धालुए यहां स्नान कर अनेक रोगों से छुटकारा पाते हैं। मन्दिर के अन्दर स्थित प्राचीण धूणां आज भी जल रहा है। शुरू में जाटी वृक्ष के पास एक छोटा सा मन्दिर था। श्री बालाजी महाराज की अनुकम्पा से आज यहां विशाल स्वर्ण निर्मित मन्दिर है। जांटी का वृक्ष आज भी मौजूद हैं जिस पर भक्तजन नारियल एवं ध्वजा चढ़ाते हैं तथा लाल धागे बांधकर मन्नत मांगते हैं। मन्दिर के ऊपर स्थापित भारतीय संस्कृति की झलक देने वाली लाल ध्वजाएं अनवरत रूप से लहराती रहती हैं।

श्री बालाजी मन्दिर से पहले लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर श्री अंजनी माता का मन्दिर है। अंजनी माता का यह मंदिर भव्य एवं प्रतिमा स्वर्ग निर्मित हैं। मन्दिर की शोभा भव्य एवं वातावरण सात्विक है। सालासर आने वाले सभी भक्जतन सबसे पहले श्री अंजनी माता मन्दिर में पूजा.अर्चना करते हैं और प्रसाद चढ़ाते हैं। तत्पश्चात भक्तजन श्री बालाजी मन्दिर की तरफ प्रस्थान करते हैं। कुछ विशिष्ट भक्तजन पेट के बल चलते हुए मन्दिर तक पहुंचते हैं। पैदल चलकर आने वाले यात्री हाथों में लाल घ्वजा लेकर चलते हैं।

श्री बालाजी की दैनिक परम्परागत भोग तथा पूजा.अर्चना भक्त श्री मोहनदास जी के वशंजों द्वारा की जाती है। बालाजी के भोग में प्रायरू चूरमाए लड्डूए पेड़ेए मिश्री.मेवा आदि चढ़ाए जाते हैं। परम्परागत रोट और खिचड़ा भी श्री बालाजी के भोग में सम्मिलित हैं। श्री बालाजी महाराज की कथा.पाठए जप तथा कीर्तन आदि यहां निरन्तर चलते रहते हैं।

श्री बालाजी महाराज की कृपा से भक्तजनों की मनोकामनाओं की पूर्ति के उपरांत यहां जात.जडुलेए ध्वजा नारियल तथा छत्र आदि भेंट किए जाते हैं। कुछ श्रद्धावान भक्त सवामणीए भण्डारा आदि अर्पित करते हैं। सवामणी का प्रचलन यहां सबसे ज्यादा है।

देश.विदेश से भक्तगण श्री बालाजी के दर्शनार्थ सालासर आते हैं। मंगलवार तथा शानिवार के दिन यहां श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होती है। चैत्र मास अप्रैल और आश्विन मास अक्टूबर की पूर्णिमाओं पर यहां विशाल मेला लगता है जो काफी दिनों तक चलता है। इस अवसर पर श्रद्धालुओं की संख्या लाखों में होती हैं। पैदल चलकर भी लाखों श्रद्धालु आते है। राजस्थान के अलावा पंजाबए हरियाणाए दिल्ली सहित पूरे भारतवर्ष से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं।

क्या होती है सवामणीरू. सवामणी श्री बालाजी महाराज को अर्पित की जाने वाले सवामण लगभग 50 किलोग्राम भोग सामग्री होती है। यह भोग सामग्री एक ही प्रकार की होती है जो लड्डूए पेड़ाए बर्फीए चूरमा होते हैं परंतु ज्यादातर सवामणी बेसन के लडड्ओं की होती हैं। भोग के उपरान्त सवामणी को भक्तों में वितरण करना होता है।

मंदिर का इतिहास

सीकर के रुल्याणी ग्राम के निवासी पं. लछीरामजी पाटोदिया के सबसे छोटे पुत्र मोहनदास बचपन से ही संत प्रवृत्ति के थे। सतसंग और पूजन-अर्चन में शुरू से ही उनका मन रमता था। उनके जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक तेजस्वी संत बनेगा और दुनिया में इसका नाम होगा। मोहनदास की बहन कान्ही का विवाह सालासर ग्राम में हुआ था। एकमात्र पुत्र उदय के जन्म के कुछ समय पश्चात् ही वह विधवा हो गई।

मोहनदास जी अपनी बहन और भांजे को सहारा देने की गरज से सालासर आकर उनके साथ रहने लगे। उनकी मेहनत से कान्ही के खेत सोना उगलने लगे। अभाव के बादल छंट गए और उनके घर हर याचक को आश्रय मिलने लगा। भांजा उदय भी बडा हो गया था, उसका विवाह कर दिया गया। एक दिन मामा-भांजे खेत में कृषि कार्य कर रहे थे, तभी मोहनदास के हाथ से किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया। मोहनदास पुन: गंडासा उठा लाए और कार्य में लग गए, लेकिन पुन: किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया। ऐसा कई बार हुआ। उदय दूर से सब देख रहा था, वह निकट आया और मामा को कुछ देर आराम करने की सलाह दी, लेकिन मोहनदास जी ने कहा कि कोई उनके हाथ से जबरन गंडासा छीन कर फेंक रहा है। सायं को उदय ने अपनी मां कान्ही से इस बात की चर्चा की। कान्ही ने सोचा कि भाई का विवाह करवा देते हैं, फिर सब ठीक हो जाएगा। यह बात मोहनदास को ज्ञात हुई तो उन्होंने कहा कि जिस लडक़ी से मेरे विवाह की बात चलाओगी, उसकी मृत्यु हो जाएगी। और वास्तव में ऐसा ही हुआ। जिस कन्या से मोहनदास के विवाह की बात चल रही थी, वह अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। इसके बाद कान्ही ने भाई पर विवाह के लिए दबाव नहीं डाला। मोहनदास जी ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और भजन-कीर्तन में समय व्यतीत करने लगे।

एक दिन कान्ही, भाई और पुत्र को भोजन करा रही थी, तभी द्वार पर किसी याचक ने भिक्षा मांगी। कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई। वह पहुंची तो उसे एक परछाई मात्र दृष्टिगोचर हुई। पीछे-पीछे मोहनदास जी भी दौडे अाए थे, उन्हें सच्चाई ज्ञात थी कि वह तो स्वयं बालाजी थे। कान्ही को अपने विलम्ब पर बहुत पश्चाताप हुआ। वह मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन कराने का आग्रह करने लगी। मोहनदास जी ने उन्हें धैर्य रखने की सलाह दी।

लगभग डेढ-दो माह पश्चात किसी साधु ने पुन: नारायण हरि, नारायण हरि का उच्चारण किया, जिसे सुन कान्ही दौडी-दौडी मोहनदास जी के पास गई। मोहनदास द्वार पर पहुंचे तो क्या देखते हैं कि वह साधु-वेशधारी बालाजी ही थे, जो अब तक वापस हो लिए थे। मोहनदास तेजी से उनके पीछे दौड़े और उनके चरणों में लेट गए तथा विलम्ब के लिए क्षमा याचना करने लगे। तब बालाजी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और बोले- मैं जानता हूं मोहनदास, तुम सच्चे मन से सदैव मुझे जपते हो। तुम्हारी निश्चल भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूंगा, बोलो।

मोहदनास जी विनयपूर्वक बोले- आप मेरी बहन कान्ही को दर्शन दीजिए। भक्त वत्सल बालाजी ने आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा- मैं पवित्र आसन पर विराजूंगा और मिश्री सहित खीर व चूरमे का भोग स्वीकार करूंगा। भक्त शिरोमणि मोहनदास सप्रेम बालाजी को अपने घर ले लाए और बहन-भाई ने आदर सहित अत्यन्त कृतज्ञता से उन्हें मनपसंद भोजन कराया। सुंदर और स्वच्छ शैय्या पर विश्राम के पश्चात् भाई-बहन की निश्छल सेवा भक्ति से प्रसन्न हो बालाजी ने कहा कि कोई भी मेरी छाया को अपने ऊपर करने की चेष्टा नहीं करेगा। श्रद्धा सहित जो भी भेंट की जाएगी, मैं उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण करूंगा और अपने भक्त की हर मनोकामना पूर्ण करूंगा एवं इस सालासर स्थान पर सदैव निवास करूंगा। ऐसा कह बालाजी अंतर्ध्यान हो गए और भक्त भाई-बहन कृत कृत्य हो उठे।

इसके बाद से मोहनदास जी एकान्त में एक शमी के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए। उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया। लोग उन्हें पागल समझ बावलिया नाम से पुकारने लगे। एक दिन मोहनदास शमी वृक्ष के नीचे बैठे धूनी रमाए तपस्या कर रहे थे कि एकाएक वह वृक्ष फलों से लद गया। एक जाट पुत्र फल तोडने के लिए उसी शमी वृक्ष पर चढा तो घबराहट में कुछ फल मोहनदास जी पर आ गिरे। उन्होंने सोचा वृक्ष से गिरकर कहीं कोई पक्षी घायल न हो गया हो, लेकिन आंखें खोलीं तो जाट पुत्र को वृक्ष पर चढे पाया। जाट पुत्र भय से कांप उठा था। मोहनदास जी ने उसे भय मुक्त किया और नीचे आने को कहा।

नीचे आने पर जाट पुत्र ने बताया कि मां के मना करने पर भी पिता ने उसे शमी फल लाने की आज्ञा दी और कहा कि वह पागल बावलिया तुझे खा थोडे ही जाएगा। तब बाबा मोहनदास जी ने कहा कि अपने पिता से कहना कि इन फलों को खाने वाला व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। लेकिन जाट ने बाबा की बात को खिल्ली में उडा दिया। कहते हैं कि फल खाते ही जाट की मृत्यु हो गई। तब से लोगों के मन में बाबा मोहनदास के प्रति भक्ति भाव का बीज अंकुरित हुआ, जो आगे की अनेक चमत्कारिक घटनाओं के बाद वृक्ष बनता चला गया।

एक बार भांजे उदय ने देखा कि बाबा के शरीर पर पंजों के बडे-बडे निशान हैं। उसने पूछा तो बाबा टाल गए। बाद में ज्ञात हुआ कि बाबा मोहनदास और बालाजी प्राय: मल्लयुद्ध व अन्य तरह की क्रीडाएं करते थे और बालाजी का साया सदैव बाबा मोहनदास जी के साथ रहता था। इस तरह की घटनाओं से बाबा मोहनदास की कीर्ति दूर पास के ग्रामों में फैलती चली गई। लोग उनके दर्शन को आने लगे।

तत्कालीन सालासर बीकानेर राज्य के अधीन था। उन दिनों ग्रामों का शासन ठाकुरों के हाथ में था। सालासर व उसके निकटवर्ती अनेक ग्रामों की देखरेख का जिम्मा शोभासर के ठाकुर धीरज सिंह के पास था। एक दिन उन्हें खबर मिली कि डाकुओं का एक विशाल जत्था लूटपाट के लिए उस ओर बढा चला आ रहा है। उनके पास इतना भी वक्त नहीं था कि बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवा सकते। अंतत: सालासर के ठाकुर सालम सिंह की सलाह पर दोनों, बाबा मोहनदास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार की।

बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उडा देना, क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है। ठाकुरों ने वैसा ही किया। बालाजी का नाम लिया और डाकुओं की पताका को तलवार से उडा दिया। डाकू सरदार उनके चरणों में आ गिरा। इस तरह मोहनदास जी के प्रति दोनों की श्रद्धा बलवती होती चली गई। बाबा मोहनदास ने उसी पल वहां बालाजी का एक भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प किया। सालम सिंह ने भी मंदिर निर्माण में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया और आसोटा निवासी अपने ससुर चम्पावत को बालाजी की मूर्ति भेजने का संदेश प्रेषित करवाया। यह घटना सन 1754 की है।

इधर, आसोटा ग्राम में एक किसान ब्रह्ममुहूर्त में अपना खेत जोत रहा था। एकाएक हल का फल किसी वस्तु से टकराया। उसने खोदकर देखा तो वहां एक मूर्ति निकली। उसने मूर्ति को निकालकर एक ओर रख दिया और प्रमोदवश उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह पुन: अपने काम में जुट गया। एकाएक उसके पेट में तीव्र दर्द उठा और वह वहां गिरकर छटपटाने लगा। उसकी पत्नी दौडी-दौडी अाई। किसान ने दर्द से कराहते हुए प्रस्तर प्रतिमा निकालने और पेट में तीव्र दर्द होने की बात बताई।

कृषक पत्नी बुद्धिमती थी। वह प्रतिमा के निकट पहुंची और आदरपूर्वक अपने आंचल से उसकी मिट्टी साफ की तो वहां राम-लक्ष्मण को कंधे पर लिए वीर हनुमान की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। काले पत्थर की उस प्रतिमा को उसने एक पेड क़े निकट स्थापित किया और यथाशक्ति प्रसाद चढाकर, अपराध क्षमा की प्रार्थना की। तभी मानो चमत्कार हुआ, वह किसान स्वस्थ हो उठ खडा हुआ।

इस चमत्कार की खबर आग की तरह सारे गांव में फैल गई। आसोटा के ठाकुर चम्पावत भी दर्शन को आए और उस मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए। उसी रात ठाकुर को बालाजी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी। प्रात: ठाकुर चम्पावत ने अपने कर्मचारियों की सुरक्षा में भजन-मंडली के साथ सजी-धजी बैलगाडी में मूर्ति को सालासर की ओर विदा कर दिया। उसी रात भक्त शिरोमणि मोहनदास जी को भी बालाजी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं अपना वचन निभाने के लिए काले पत्थर की मूर्ति के रूप में आ रहा हूं। प्रात: ठाकुर सालम सिंह व अनेक ग्रामवासियों ने बाबा मोहनदास जी के साथ मूर्ति का स्वागत किया और सन 1754 में शुक्ल नवमी को शनिवार के दिन पूर्ण विधि-विधान से हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की गई।

श्रावण द्वादशी मंगलवार को भक्त शिरोमणि मोहनदास जी भगवत् भजन में इतने लीन हो गए कि उन्होंने घी और सिंदूर से मूर्ति को पूर्णत: श्रृंगारित कर दिया और उन्हें कुछ ज्ञात भी नहीं हुआ। उस समय बालाजी का पूर्व दर्शित रूप जिसमें वह श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर धारण किए थे, अदृश्य हो गया। उसके स्थान पर दाढी-मूंछें, मस्तक पर तिलक, विकट भौंहें, सुंदर आंखें, पर्वत पर गदा धारण किए अद्भुत रूप के दर्शन होने लगे। इसके बाद शनै:-शनै: मंदिर का विकास कार्य प्रगति के पथ पर बढता चला गया।

अंजनी माता का मंदिर

सालासर में स्थित अंजनी माता का प्रसिद्ध मंदिर केवल राजस्थान ही नहीं पूरे भारत के श्रद्धालुओं का प्रमुख तीर्थस्थल है। श्री अञनी माता का मन्दिर सालासर धाम से लक्षमनगढ जाने वाली रोड पर लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर में माँ की जो मूर्ति स्थापित है उसमें हनुमानजी अपने बालरूप में माता की गोद में बैठे हैं। अपने चतुर्भुजी आदमकद रूप में अंजनी माता शंख और सुहाग-कलश धारण किए हैं यहां एक साथ ही बालाजी हनुमान और उनकी माँ अंजनी की पूजा-अर्चना की जा सकती है। कहते है कि जो सालासर आकर इन दोनों की सच्चे मन से पूजा-अर्चना करता है। उसकी प्रत्येक मनोकामना पूरी होती है।

मन्दिर के संस्थापक श्री पन्नारामजी पारीक थे। इनकी पत्नि का युवावस्था में निधन हो गया। फ़िर वह प्रयाग चले गये और वहाँ गंगा तट पर ध्यान व पूजन अर्चन करने लगे। एक दिन हनुमानजी ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर, स्वप्न में दर्शन दे कर आदेश दिया कि तुम मेरे धाम सालासर आ जाओ। सालासर धाम में वह परोपकारी भावना से प्रेरित होकर पथिकों को शीतल जल पिलाकर उनकी थकान को मिटाने लगे। साथ ही वे अंजनीनन्दन व अंजनीमाता की सेवा भक्तिभाव से करते हुये उनके ही ध्यान में निमग्न रहने लगे। सन्१९६३ में सीकर नरेश ने पन्डित जी के कहे अनुसार मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। अंजनी माता मंदिर की विशेष प्रसिद्धि सुहागन स्त्रियों और नवविवाहितों की मनोकामना सिद्धि लिए है। सुहागन स्त्रियां यहां आकर अपने वैवाहिक और पारिवारिक जीवन की सफलता के लिए नारियल और सुहाग चिन्ह चढ़ाती हैं।

दूर-दूर से लोग विवाह का पहला निमंत्रण पत्र मंदिर में जमा करते हैं। ताकि अंजनी माता की कृपा से न केवल विवाह सफल हो बल्कि नवविवाहित को सभी प्रकार का सुख मिले।

मोहनदासजी की समाधि

मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई की मृत्यु के बाद उन्होंने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है । मंदिर के बाहर धूणां है। यह धूणा श्रीबालाजी के मन्दिर के समीप भक्तप्रवर श्री मोहनदासजी महाराज द्वारा अपने हाथों से प्रज्वलित किया गया था। यह धूणी तब से आज तक प्रज्वलित है। श्रद्धालुजन इस धूणे से भभूति ( भस्म ) ले जाते हैं और अपने संकट निवारणार्थ उपयोग करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह विभूति भक्तों के सारे कष्टों को दूर कर देती है । सच्चे मन से आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं को अचूक लाभ होते हुये देखा गया है । मंदिर में मोहनदासजी के पहनने के कड़े भी रखे हुए हैं। ऐसा बताते हैं कि यहां मोहनदासजी के रखे हुए दो कोठले थे, जिनमें कभी समाप्त न होनेवाला अनाज भरा रहता था, पर मोहनदासजी की आज्ञा थी कि इनको खोलकर कोई न देखें। बाद में किसी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, जिससे कोठलों की वह चमत्कारिक स्थिति समाप्त हो गयी।

How to Reach

The Jaipur Railway Station and airways are both very near to the Salasar town. After reaching here the visitors have to hire a taxi or bus to reach the temple. There are also regular buses available from Delhi to Jaipur which carry passengers to this holy place.

Things to Do In And Around

There are several small temples which are located in the surrounding of the main temple of Lord Balaji. The most famous among them and often visited by the tourists is the Mata Anjana Devi Temple which about 1km away from the Salasar Balaji Dham Charu.

Opening/Closing Timings and Days

The Salasar Balaji Temple remains open for the visitors from 4 in the morning till 10 in the night.

Best Time to Visit

The best time to visit the temple is during the festivals of Chaitra Purnima and Ashvin Purnima which are considered very holy days to offer tribute to the deity.

Official Contact Detail

Radhe
iNet Business Hub
Neel Kanth Complex, Camp Chowk,
Hisar – 125005, Haryana -[INDIA]
Contact Number
+919896001977 (Only for Website Suggestion)
Email Address & IM
radhe@inetbusinesshub.com

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